The Mystery of Apollo 13: How Three Men Lost in Space | Most Terrifying Mission

[संगीत] अपोलो 11 और अपोलो 12 के जरिए इंसान ने 1969 में चांद पर कदम रख दिया था इन दोनों सक्सेसफुल मिशंस के बाद 11th अप्रैल 1970 को मून लैंडिंग के लिए अपोलो 13 को लॉन्च किया जाता है ती दिन का ट्रेवल करने के बाद अपोलो 13 की स्पेस फ्लाइट जमीन से करीब 320000 किमी दूर आ चुकी होती है अगर सब कुछ इसी तरह चलता रहता तो अपोलो 13 में बैठे एस्ट्रोनॉट्स कुछ ही घंटों बाद चांद पर पहुंच जाते इससे एक साल पहले ही नील आर्मस्ट्रांग समेत चार एस्ट्रोनॉट्स चांद पर कदम रख चुके थे इसलिए पास के दोनों सक्सेसफुल मिशंस की वजह से अपोलो 13 में बैठे तीनों एस्ट्रोनॉट्स अपने सफर की कामयाबी के लिए काफी कॉन्फिडेंट और रिलैक्स होते हैं यह मिशन जितना नॉर्मल अपोलो 13 के क्रू को लग रहा था इसे उतना ही नॉर्मल धरती पर मौजूद सभी लोग समझ रहे थे सभी को मून लैंडिंग इतना मामूली लगने लगा था कि दुनिया के किसी भी बड़े टीवी चैनल ने अपोलो 13 के लॉन्च को ब्रॉडकास्ट तक करना जरूरी नहीं समझा था लेकिन धरती से 32000 किमी की दूरी पर अपोलो 13 के साथ कुछ ऐसा होता है जो दुनिया भर का ध्यान अपनी ओर खींच लेता है चांद पर पहुंचने से महज कुछ घंटे पहले अपोलो 13 में एक जोर का धमाका होता है जिससे उस स्पेस फ्लाइट के सभी वार्निंग अलार्म्स बहुत तेज आवाज के साथ बजने लगते हैं स्पेस फ्लाइट में बैठे क्रू के जांच करने पर पता चलता है कि इस धमाके में एक ऑक्सीजन टैंक ब्लास्ट हो चुका था जिससे उसकी पूरी ऑक्सीजन खत्म हो चुकी थी वही दूसरा ऑक्सीजन टैंक भी लीक करने लगता है और उसमें मौजूद ऑक्सीजन तेजी से अंतरिक्ष में फैलने लगती है परेशानी यह थी कि एस्ट्रोनॉट्स के चांद पर जाने और वहां से वापस धरती पर लौटने के लिए केवल इन दो ऑक्सीजन टैंक्स का ही इंतजाम था एस्ट्रोनॉट्स इन ऑक्सीजन टैंक का इस्तेमाल केवल सांस लेने के लिए नहीं बल्कि पानी और इलेक्ट्रिसिटी के लिए भी करते थे इसलिए जिस तेजी से ऑक्सीजन अंतरिक्ष रही थी तीनों एस्ट्रोनॉट्स के जिंदा बचने का चांस भी उतना ही तेजी के साथ कम होता जा रहा था जहां पहले इस मिशन को कोई तव जो नहीं मिल रही थी तो वही इस हादसे के बाद दुनिया भर के लोग टीवी पर नजरें गड़ाए अपोलो 13 की पल-पल की खबर रखने लगे थे तेजी से खत्म हो रही ऑक्सीजन के बीच अब एस्ट्रोनॉट्स और नासा के सामने चांद पर लैंड करना तो दूर अंतरिक्ष में लाखों किलोमीटर दूर से धरती पर किस तरह जिंदा लौट कर आना है यही एक बड़ा सवाल बन गया था चलिए जानते हैं अपोलो 13 की ये रोमांचक कहानी जिसे स्पेस के भयानक हादसों में सबसे ऊपर गिना जाता हैन मि ऑब्जेक्टिव ऑफ 13 इंग वन वी होप टू फंड आउट अ लट अबाउ द रिजिन ऑ द मन एंड फम द द रिजन ऑ द एंड वी हैव लिफ का a here's a fl3 इट वा अ डायर स्टेट इट वाज अ रिल रिल इमरजेंसी एस्टन सेफ आई वेलो कंट्रोल न व जस्ट हैड ल सिगनल हनी सकल द लास्ट मोमेंट्स ऑ अपोलो 13 बेथ व कैन डू नाउ इ जस्ट ू लिन एंड साल 1961 में अमेरिकन प्रेसिडेंट जॉन एफ केनेडी ने जब 1960 का दशक खत्म होने से पहले ह्यूमन को चांद पर पहुंचाने का प्रॉमिस किया तो मून लैंडिंग का मिशन पूरे अरिका के लिए एक नेशनल गोल बन गया इसी मकसद से नासा का अपोलो प्रोग्राम शुरू होता है और 20th जुलाई 1969 वह ऐतिहासिक दिन बना जब नील आर्मस्ट्रांग और बज ऑल रेन चांद पर कदम रखते हैं यह अपोलो 11 मिशन था जिसके जरिए इंसान ने चांद पर पहुंचकर इतिहास रच दिया था साल 1969 में अपोलो 11 के बाद अपोलो 12 भी एक सक्सेसफुल मून लैंडिंग मिशन रहता है जिसके चलते दो और एस्ट्रोनॉट्स चांद पर पहुंचते हैं और वापस धरती पर सुरक्षित लौट आते हैं इस तरह नासा ने मून डिंग के लिए अपोलो 20 तक का प्लान किया हुआ था इसलिए अपोलो 11 और अपोलो 12 के बाद अपोलो 13 मिशन की बारी आती है लेकिन इस बीच बदलते वक्त के साथ लोगों का इंटरेस्ट भी बदलता जा रहा था दो सफल मून लैंडिंग मिशंस के बाद अमेरिकी जनता उससे उब चुकी थी लोगों का चांद को लेकर फैसन फीका पड़ता जा रहा था वहीं इन मिशंस में बेशुमार पैसा खर्च हो रहा था जिस वजह से अमेरिकन गवर्नमेंट भी इन स्पेस मिशंस को लेकर काफी कशमकश की स्थिति में थी अगर केवल अपोलो 11 की बात करें तो उस समय उस पर तीन 555 मिलियन डॉलर का खर्च हुआ था जो आज के हिसाब से 3 बिलियन डॉलर्स यानी करीब 225000 करोड़ रपए होते हैं यह खर्च केवल एक अपोलो 11 का था जबकि नासा ने अभी ऐसे आठ और मिशंस को प्लान कर रखा था यह 1970 का समय था जब अमेरिका वियतनाम वॉर जैसी उलझनों से जूझ रहा था और ऐसे में स्पेस मिशंस में किए जा रहे बेशुमार खर्चों की वजह से अमेरिकी सरकार को काफी विरोध का सामना करना पड़ता है इसलिए अमेरिकी गवर्नमेंट ने नासा के बजट पर कैची चलाना शुरू कर दिया जिस वजह से 4th जनवरी 1970 को नासा द्वारा अपोलो 20 को कैंसिल कर दिया जाता है जो कि प्लान के हिसाब से अपोलो प्रोग्राम का आखिरी मून लैंडिंग मिशन था लगातार घटते जनसमर्थन और कम होते बजट के बीच नासा द्वारा 11th अप्रैल 1970 को अपोलो 13 लॉन्च किया जाता है अपोलो 13 का मेन ऑब्जेक्टिव चांद पर साइंटिफिक एक्सप्लोरेशन करना था जिसके जरिए चांद और धरती के अस्तित्व के बारे में जरूरी जानकारी इकट्ठा की जा सके अपोलो 13 को फ्लोरिडा के उसी केनेडी के सेंटर से लॉन्च किया गया जहां से अपोलो 11 और अपोलो 12 ने उड़ान भरी थी इस बार भी अपोलो 13 को लॉन्च करने की जिम्मेदारी सेटन 5 नाम के पावरफुल रॉकेट के ऊपर ही थी इसके अलावा अपोलो 13 की स्पेस फ्लाइट को भी पिछले स्पेस मिशंस की तरह तीन मॉड्यूस को जोड़कर तैयार किया गया था जिसमें एक कमांड मॉड्यूल था जिसमें एस्ट्रोनॉट्स के रहने और सब कुछ ऑपरेट करने की व्यवस्था थी जिस वजह से यह स्पेस फ्लाइट का सबसे जरूरी हिस्सा होता है दूसरा सर्विस मॉड्यूल था जिसमें फ्यूल सेल्स ऑक्सीजन टैंक्स और हाइड्रो ड्रोजन टैंक समेत कई जरूरी बंदोबस्त किए गए थे जिनसे कमांड मॉड्यूल में बैठे एस्ट्रोनॉट्स के लिए हवा पानी और बिजली का इंतजाम होता था इसका तीसरा हिस्सा लूनर मॉड्यूल होता है जो चांद पर लैंड करने और वहां से वापस उड़ान भरने के लिए जिम्मेदार था लॉन्च के कुछ मिनट बाद ही अपोलो 13 अर्थ की ऑर्बिट में दाखिल हो जाता है और वहां कई चक्कर काटने के बाद अर्थ की ऑर्बिट से निकलकर चांद की तरफ बढ़ने लगता है हर मिशन की तरह इस अपोलो 13 में भी तीन एस्ट्रोनॉट्स बैठे हुए थे जिम लोवे इस मिशन के कमांडर होते हैं जो कि इस समय नासा के सबसे अनुभवी एस्ट्रोनॉट्स में से एक थे इन्होंने सबसे ज्यादा वक्त स्पेस में गुजारा हुआ था लोल अपोलो 8 मिशन का भी हिस्सा रह चुके थे जो कि चांद की ऑर्बिट में पहुंचने वाली पहली क्रूड स्पेस फ्लाइट थी अपोलो 13 के इस मिशन में उनके साथ कमांड मॉड्यूल के पायलट जैक स्वी गर्ट और लूनर मॉड्यूल के पायलट फ्रेड हैसी होते हैं हालांकि कमांड मॉड्यूल के पायलट पहले केन मैटिंग ली होने वाले थे लेकिन लॉन्च के कुछ दिन पहले वो जर्मन मिसल से इफेक्टेड एक इंसान के कांटेक्ट में आ गए जिस वजह से खतरे को भांपते हुए nas100 पहले उनकी जगह मिशन के लिए जैक स्विग को शामिल करता है लास्ट मूमेंट पर हुए इस बदलाव के बाद भी अपोलो 13 के क्रू के बीच सब कुछ तालमेल के साथ हो रहा था और तीनों एस्ट्रोनॉट्स कोऑर्डिनेट करते हुए चांद की तरफ बढ़ रहे थे धरती से चांद पर पहुंचने के लिए लगभग 4 दिन का समय लगता है इसलिए लॉन्च के करीब 55 घंटे बाद अपोलो 13 आधे से ज्यादा रास्ता तय कर चुका था सफर की शुरुआत से ही अपोलो 13 के एस्ट्रोनॉट्स धरती पर अमेरिका के बूस्टन शहर में मौजूद मिशन कंट्रोल के साथ कांटेक्ट में बने हुए थे यह सब कुछ एक रूटीन का हिस्सा था और इस दौरान सब कुछ इतना नॉर्मल था कि अपोलो 13 में बैठे एस्ट्रोनॉट्स बोर हो रहे थे इसलिए खाली समय को देखते हुए तीनों एस्ट्रोनॉट्स टीवी के लिए एक ब्रॉडकास्ट रिकॉर्ड करते हैं जिसमें वह स्पेस फ्लाइट के अंदर की जिंदगी को दिखाते हुए बताते हैं कि वह कम ग्रेविटी में किस तरह रहते हैं अपोलो 13 के लॉन्च की तरह उसके इस लाइव ब्रॉडकास्ट को भी दुनिया के किसी भी बड़े टीवी चैनल ने एयर नहीं किया पब्लिक अब अपोलो मिशंस में अपनी दिल जस्पी हो चुकी थी जिस वजह से एस्ट्रोनॉट्स की स्पेस फ्लाइट के अंदर की जिंदगी को देखने में बहुत ही कम लोगों ने इंटरेस्ट दिखाया लेकिन किसे पता था कि इग्नोर किए गए इस ब्रॉडकास्ट से केवल कुछ मिनट बाद अपोलो 13 के साथ कुछ ऐसा होगा जो अपनी ही धुन में खोई हुई दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींच लेगा स्पेस फ्लाइट में बोर हो रहे एस्ट्रोनॉट्स को भी कोई अंदाजा नहीं था कि अब से कुछ मिनट बाद उनकी जिंदगी में एक ऐसा भूचाल आने वाला था जो उन्हें जिंदगी और मौत के बीच लाकर खड़ा कर देगा हल्की-फुल्की बातचीत से भरा 49 मिनट्स का टीवी ब्रॉडकास्ट रिकॉर्ड करने के बाद एस्ट्रोनॉट्स अपने रूटीन मेंटेनेंस के काम में लग जाते हैं हमेशा की तरह इस समय भी एस्ट्रोनॉट्स हस्टन मिशन कंट्रोल से कांटेक्ट में होते हैं और वहां से मिल रहे इंस्ट्रक्शंस को फॉलो करते हैं इस दौरान मिशन कंट्रोल ने कमांड मॉड्यूल के पायलट जैक स्वी गर्ट से ऑक्सीजन टैंक में लगे फैन को ऑन करके लिक्विड ऑक्सीजन को स्टर करने को कहा दरअसल जब भी कोई स्पेस मिशन भेजा जाता है तो उसमें ऑक्सीजन और हाइड्रोजन समेत हर जरूरी गैस को लिक्विड फॉर्म में कन्वर्ट करके भेजा जाता है ताकि कम जगह में ज्यादा गैस को स्टोर किया जा सके लेकिन स्पेस में टेंपरेचर इतना कम होता है कि लिक्विड ऑक्सीजन भी जमने लगती है और इसलिए ऑक्सीजन टैंक में एक फैन लगाया जाता है ताकि समय-समय पर फैन को चलाकर ऑक्सीजन को सही अवस्था में लाया जा सके यह सब काम केवल क्रायो स्टर के एक स्विच को ऑन करने से बहुत ही आसानी से हो जाता था इसलिए जब मिशन कंट्रोल ने जैक स् विगर्स को इस स्विच को ऑन करने को कहा तो उन्होंने ऑर्डर को फॉलो करते हुए स्विच को चालू कर दिया यह 13th अप्रैल की रात का समय था और इस छोटे से काम को निपटाने के बाद क्रू सोने वाला था अभी तक अपोलो 13 3 दिनों के सफर के बाद धरती से करीब 320000 किमी दूर आ चुका था और अगले दिन जिम लोवे और फ्रेड हैसी चांद पर कदम रखने वाले थे लेकिन जैक स्विग द्वारा क्रायो स्टीर के स्विच ऑन करने के अगले ही मिनट कुछ ऐसा होता है जो इनके चांद पर पहुंचने के सपने को चकनाचूर कर देता है क्रायो स्टर का स्विच दबाने के अगले ही मिनट अपोलो 13 के स्पेस फ्लाइट में एक जोर का धमाका होता है ये धमाका इतना तेज था कि स्पेस फ्लाइट समेत तीनों एस्ट्रोनॉट्स अपनी-अपनी जगह से हिल जाते हैं एस्ट्रोनॉट्स के सामने मौजूद सिस्टम के इंडिकेटर्स लाल होने लगते हैं वार्निंग अलार्म्स बहुत तेज आवाज के साथ बजने लगते हैं और स्पेस फ्लाइट के कई जरूरी सिस्टम्स काम करना बंद कर देते हैं एकदम से हुई उस उथल-पुथल से एस्ट्रोनॉट्स को कुछ भी समझ नहीं आता कि यह सब क्या हो रहा था और क्यों हो रहा था इस गड़बड़ी और अफरा तफरी की तुरंत जानकारी देते हुए एस्ट्रोनॉट्स ने हस्टन मिशन कंट्रोल से कहा हूस्टन वी हैव हैड अ प्रॉब्लम हियर व प्रॉब्लम न से अन प्लीज व प्रबलम इस दौरान हूस्टन मिशन कंट्रोल को भी नहीं पता था कि आखिर अपोलो 13 के साथ ये कैसी गड़बड़ी हुई है और इसके पीछे क्या वजह है लेकिन मिशन कंट्रोल और स्पेस फ्लाइट के सिस्टम्स की लड़खड़ा रीडिंग से ये जरूर कंफर्म हो चुका था कि कुछ बहुत भयानक हुआ है इन लड़खड़ा रीडिंग्स में सबसे ज्यादा दिल दहला देने वाला डाटा ऑक्सीजन टैंक्स का था उन्होंने देखा कि एक ऑक्सीजन टैंक की रीडिंग जीरो हो चुकी थी और दूसरे ऑक्सीजन टैंक की रीडिंग का कांटा तेजी से नीचे गिर रहा था एक्सप्लोजन को हुए अब तक 13 मिनट गुजर चुके थे और किसी के पास कोई क्लू नहीं था कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है तभी कमांडर जिम लवेल ने लेफ्ट साइड की विंडो से बाहर झांक कर देखा तो उनके होश उड़ गए उन्होंने मिशन कंट्रोल को बताया कि स्पेस फ्लाइट से कोई गैस तेजी से स्पेस में लीक हो रही है इस मंजर के बाद जब सभी कड़ियों को जोड़कर देखा गया तो पता चला कि आखिर ये सब क्या हो रहा था दरअसल जब क्रायो स्टियर का स्विच ऑन किया गया था तभी एक ऑक्सीजन टैंक में लगे फैन की वायरिंग में स्पार्क होता है ऑक्सीजन की मौजूदगी में वहां हुआ ये छोटा सा स्पार्क आग का रूप ले लेता है जिस कारण उस ऑक्सीजन टैंक में जोर का धमाका होता है ये ऑक्सीजन टैंक नंबर टू था जो इस धमाके में पूरी तरह से डिस्ट्रॉय हो चुका था वही इस धमाके की वजह से उसके पास ही रखा ऑक्सीजन टैंक नंबर वन भी डैमेज हो जाता है और उसकी ऑक्सीजन भी लीक होने लगती है ये ब्लास्ट इतना तेज था कि सर्विस मॉड्यूल की साइड का एक पैनल उखड़ करर स्पेस में उड़ जाता है और उसी खुली जगह से ऑक्सीजन टैंक से लीक होकर तेजी से स्पेस में फैलने लगती है मुसीबत इस बात की थी कि सर्विस मॉड्यूल में केवल दो ऑक्सीजन टैंक्स मौजूद थे जो कमांड मॉड्यूल में बैठे एस्ट्रोनॉट्स को जिंदा रखने के लिए हवा पानी और बिजली का इंतजाम कर रहे थे धमाके से केवल ऑक्सीजन टैंक ही नहीं बल्कि सर्विस मॉड्यूल में लगे तीन में से दो फ्यूल सेल्स पूरी तरह खत्म हो जाते हैं जो कि कमांड मॉड्यूल को पावर सप्लाई करने का काम कर रहे थे अब केवल एक फ्यूल सेल से ही कमांड मॉड्यूल को पावर मिल रही थी जो कि स्पेस फ्लाइट को चलाए रखने के लिए सफिशिएंट नहीं था इंसफिशिएंट फ्यूल और लगातार कम हो रही ऑक्सीजन के बीच अब चांद पर लैंड करने का तो सवाल ही नहीं था मून लैंडिंग मिशन को कैंसिल करने के बाद अब होस्टिन मिशन कंट्रोल के सामने हजारों मुश्किलों से भरा केवल एक सवाल था कि इन तीनों एस्ट्रोनॉट्स को वापस धरती पर कैसे लाया जाए एस्ट्रोनॉट्स उस वक्त धरती से करीब 320000 किमी दूर थे और इतनी दूर से वापस धरती पर आने में उन्हें करीब 4 दिन का वक्त लगता ऐसी खौफनाक स्थिति में इतने दिन तक उनका जिंदा रहना और सुरक्षित धरती पर आना एक लगभग नामुमकिन सा काम था लेकिन इस इंपॉसिबल टास्क को पॉसिबल बनाने में मिशन कंट्रोल ने एडी चोटी का जोर लगा दिया होस्टिन मिशन कंट्रोल ने नासा के सभी जानकार लोगों को बुलाया और जो वक्त पर नहीं आ सकते थे उन्हें फोन लाइन पर जोड़ा गया इंजीनियर्स साइंटिस्ट और एस्ट्रोनॉट से लेकर स्पेस फ्लाइट को बनाने वाले लोगों तक सबको इस एक काम पर लगा दिया गया जहां पहले इस अपोलो 13 को कोई अटेंशन नहीं मिल रही थी तो वही इस हादसे की खबर के बाद दुनिया भर के अखबार और न्यूज़ चैनल्स अपोलो 13 की हेडलाइन से भर गए दुनिया के कोने-कोने में इस बात की चर्चा होने लगी पब्लिक अपोलो 133 से जुड़ी हर एक खबर के लिए टीवी स्क्रीन पर नजरें गड़ाए बैठी थी दूसरी तरफ स्पेस में मौजूद एस्ट्रोनॉट का बुरा हाल था जिस कमांड मॉड्यूल में एस्ट्रोनॉट्स बैठे हुए थे उसमें अब केवल कुछ ही देर की पावर सप्लाई बची थी जिससे आगे का सफर पूरा करके वापस धरती पर आना नामुमकिन था वही धरती पर मौजूद मिशन कंट्रोल एस्ट्रोनॉट्स को वापस लाने के लिए एक सुरक्षित तरीका तलाश कर रहा था मिशन कंट्रोल के पास मेनली दो ऑप्शंस थे जिनके जरिए अपोलो 13 को वापस धरती पर लाया जा सकता था पहला ऑप्शन यह था कि सर्विस मॉड्यूल के मेन इंजन का इस्तेमाल करके पूरी स्पेस फ्लाइट को धरती की तरफ वापस मोड़ दिया जाए यह वापस बसाने का शॉर्ट रूट था और इस प्लान के जरिए केवल दो दिन में धरती पर लौटा जा सकता था लेकिन इस प्लान के साथ परेशानी यह थी कि सर्विस मॉड्यूल में हुए ब्लास के कारण उसमें इतनी कम पावर सप्लाई बची थी कि वह वापसी का एक घंटा भी तय नहीं कर सकता था और साथ ही ऐसा करने में मेन इंजन के बंद होने का भी खतरा था इसके बाद दूसरा ऑप्शन यह था कि वापस मुड़ने के बजाय आगे चांद की तरफ बढ़ा जाए और चांद के अराउंड घूमकर चांद की ग्रेविटी का इस्तेमाल करते हुए धरती की तरफ आया जाए यह प्लान बहुत ज्यादा डिस्टेंस को कवर जरूर करता था लेकिन इसमें चांद की ग्रेविटी के सपोर्ट की वजह से कम पावर का इस्तेमाल होता इसलिए मिशन कंट्रोल ने दूसरे ऑप्शन को अप्रूव किया और साथ ही इस पूरे सफर के लिए कमांड मॉड्यूल की जगह इससे अटैच लूनर मॉड्यूल को इस्तेमाल करने का डिसीजन लिया जिसके अंदर ऑक्सीजन और पावर का अलग से बंदोबस्त था यह सब कुछ तय करने में काफी वक्त गुजर चुका था और कमांड मॉड्यूल की पावर सप्लाई खत्म होने की कगार पर थी धमाके के करीब एक घंटे बाद मिशन कंट्रोल ने एस्ट्रोनॉट्स को आदेश दिया कि वो कमांड मॉड्यूल के सभी सिस्टम्स को टर्न ऑफ कर दे और लूनर मॉड्यूल में शिफ्ट हो जाए आदेश के अनुसार अब आगे की यात्रा एस्ट्रोनॉट्स को लूनर मॉड्यूल से ही करनी थी जिसका असल में काम केवल मून पर लैंड करने और वहां से वापस मून की ऑर्बिट में आने का था इसके बाद जिस लूनर मॉड्यूल को चांद की ऑर्बिट में ही छोड़ दिया जाता था उसका इस्तेमाल अब एक लाइफ बोर्ड की तरह पूरा सफर तय करने के लिए किया जाना था लेकिन इस लूनर मॉड्यूल को इस तरह से तैयार किया गया था कि वो एक बार अर्थ के एटमॉस्फेयर से निकलकर वापस अर्थ के एटमॉस्फियर में नहीं आ सकता था अर्थ के एटमॉस्फियर में केवल कमांड मॉड्यूल ही घुस सकता था जिसकी पावर सप्लाई अब केवल 15 मिनट की बची थी इसलिए मिशन कंट्रोल ने कमांड मॉड्यूल के सभी सिस्टम्स को बंद करने का आदेश दिया ताकि उसकी बची हुई पावर सप्लाई को अर्थ के एटमॉस्फेयर में एंटर करने के लिए यूज किया जा सके एस्ट्रोनॉट्स कमांड मॉड्यूल से निकलकर लूनर मॉड्यूल में चले जाते हैं जिसके जरिए अब उन्हें आगे का सफर तय करना था लेकिन लूनर मॉड्यूल के साथ सफर करने में उन्हें बहुत सारी दिक्कतों का सामना करना था क्योंकि लूनर मॉड्यूल का इस्तेमाल ऐसे मुश्किल सफर के लिए हो रहा होता है जिसके लिए उसे बनाया ही नहीं गया था उसका मैकेनिज्म और उसकी बनावट इस काम के लिए बिल्कुल भी सूटेबल नहीं होती है लेकिन अब एस्ट्रोनॉट्स के पास उसके अलावा कोई ऑप्शन नहीं था लूनर मॉड्यूल को केवल दो लोगों के हिसाब से सिर्फ 45 घंटे के सफर के लिए बनाया गया था लेकिन यहां तीन एस्ट्रोनॉट्स को उस छोटे से व्हीकल में करीब 90 घंटे का सफर तय करना था इसके अलावा इस मिशन का सारा नेविगेशन सिस्टम कमांड मॉड्यूल में मौजूद था जिसका इस्तेमाल सही रास्ते पर बने रहने के लिए किया जाता था इस सिस्टम के बिना एस्ट्रोनॉट स्पेस इस में भटक सकते थे इसलिए सबसे पहले कमांड मॉड्यूल के नेविगेशन प्लेटफार्म को लूनर मॉड्यूल के साथ अलाइन किया गया लूनर मॉड्यूल में सवार होकर एस्ट्रोनॉट्स आगे की तरफ बढ़ते हैं लेकिन जिस रास्ते पर अभी तक स्पेस फ्लाइट चल रही थी वो मून पर लैंड करने वाला रास्ता होता है पर अब क्योंकि मून लैंडिंग का मिशन कैंसिल हो चुका था इसलिए स्पेस फ्लाइट के पाथ को चेंज करने की जरूरत थी जिससे वो एक फ्री रिटर्न ट्रेजक्ड पर चली जाए और उसको चांद की ग्रेविटी की मदद से धरती की तरफ मोड़ा जा सके लेकिन इस बहुत जरूरी काम के लिए लूनर मॉड्यूल के डिसेंट इंजन को कई बार बर्न करने की जरूरत थी जबकि उसके इंजन को केवल एक बार सिर्फ चांद से टेक ऑफ करने के लिए बनाया गया था उस समय सिचुएशन ऐसी थी कि धरती पर लौटने के लिए एस्ट्रोनॉट्स हर एक रिस्क लेने को तैयार थे इसलिए धमाके की घटना के 5 घंटे बाद लूनर मॉड्यूल के डिसेंट इंजन को 35 सेकंड के लिए बर्न करके उसे दूसरे रास्ते पर मोड़ दिया जाता है इसके कुछ घंटों बाद अपोलो 13 जब चांद के पास पहुंचता है तो लूनर मॉड्यूल के इंजन को दूसरी बार करीब 5 मिनट के लिए बर्न किया जाता है ताकि स्पीड को और तेज किया जा सके इसके करीब 2 घंटे बाद अपोलो 13 चांद के अराउंड घूमते हुए चांद के पीछे पहुंच जाता है जिसे फार साइड और डार्क साइड ऑफ द मून कहा जाता है इस समय अपोलो 13 धरती से 4 लाख किमी से भी ज्यादा दूर था और ये एक रिकॉर्ड बन जाता है जहां तक कोई भी इंसान आज तक दोबारा नहीं पहुंच पाया इसके बाद मून का चक्कर लगाते हुए मून की ग्रेविटी का इस्तेमाल करके स्पेस फ्लाइट को धरती की तरफ तेजी से मोड़ा गया इसके कुछ वक्त बाद रफ्तार को तेज करके जर्नी को छोटा करने के लिए लूनर मॉड्यूल के इंजन को तीसरी बार फायर किया जाता है ये खुशकिस्मती ही थी कि लूनर मॉड्यूल ये तीसरा बर्न भी झेल लेता है और अपोलो 13 तेज रफ्तार से धरती के डायरेक्शन में बढ़ने लगता है इसके अलावा एक अच्छी चीज ये थी कि सर्विस मॉड्यूल में जो धमाका हुआ था वो चांद पर पहुंचने से पहले हुआ था अगर यही हादसा चांद पर पहुंचने और वहां से निकलने के बाद धरती की तरफ लौटने के वक्त होता तो जिस लूनर मॉड्यूल में अभी तीनों एस्ट्रोनॉट्स बैठकर धरती की दिशा में बढ़ रहे थे वो लूनर मॉड्यूल उनके पास यात्रा करने के लिए मौजूद ही नहीं होता क्योंकि हर मून लैंडिंग के बाद लूनर मॉड्यूल को चांद की ऑर्बिट में ही छोड़ दिया जाता था और ऐसी सिचुएशन में एस्ट्रोनॉट्स के पास वापस लौटने का कोई मौका नहीं होता और उनकी वही कुछ ही देर में जान चली जाती लेकिन ऐसा भी नहीं था कि लूनर मॉड्यूल में रहना एस्ट्रोनॉट्स के लिए कोई आसान काम था बल्कि उन्हें इस पूरे सफर के दौरान भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा होता है पहली परेशानी इलेक्ट्रिसिटी की थी जो लूनर मॉड्यूल में इतनी मात्रा में नहीं थी कि उसके सारे सिस्टम्स लगातार 4 दिन तक काम कर सके इसलिए बिजली बचाने के लिए उसकी सभी नॉन एसेंशियल सिस्टम्स को बंद कर दिया गया इन बंद किए गए उपकरणों में वो हीट्स भी थे जो ठंडे स्पेस में एस्ट्रोनॉट्स को गर्माहट पहुंचा रहे थे और जिनके बंद होने से अब एस्ट्रोनॉट्स को भारी ठंड का सामना करना पड़ रहा था बहुत ज्यादा ठंड की वजह से एस्ट्रोनॉट्स का खाना भी जम जा रहा था ऐसी सिचुएशन में उन्हें जरा सी नींद लेने में भी बहुत मुश्किल हो रही थी दूसरी परेशानी पानी की थी इस लंबे सफर के हिसाब से लूनर मॉड्यूल में बहुत लिमिटेड पानी पानी था जिसमें से कुछ पानी कूलिंग सिस्टम के लिए भी इस्तेमाल किया जाना था इसी वजह से हर एस्ट्रोनॉट पूरे दिन में केवल 200 एए पानी पीकर गुजारा कर रहा था इन मुश्किलों के दौरान एस्ट्रोनॉट्स एक बात से निश्चिंत थे कि लूनर मॉड्यूल में ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं थी उसमें सफिशिएंट ऑक्सीजन थी और कुछ ऑक्सीजन टैंक बैकअप के तौर पर भी मौजूद थे लेकिन लूनर मॉड्यूल में एस्ट्रोनॉट्स के लिए कार्बन डाइऑक्साइड एक बड़ी परेशानी का कारण बनती है दरअसल धरती पर हमारे सांस छोड़ते समय जो कार्बन डाइऑक्साइड रिलीज होती है उसे धरती पर वातावरण बैलेंस कर लेता है लेकिन स्पेस फ्लाइट्स में इस co2 गैस को बैलेंस करने के लिए लिथियम हाइड्रोक्साइड के कनिस्ट करस का इस्तेमाल किया जाता है लेकिन लूनर मॉड्यूल का कैलिस्ट केवल दो लोगों के लिए लगा था जो सिर्फ दो दिन तक काम कर सकता था जबकि उसमें तीन एस्ट्रोनॉट्स को 4 दिन तक गुजारा करना था जिस वजह से co2 की मात्रा तेजी से बढ़ती जा रही थी और उसे अगर कंट्रोल नहीं किया जाता तो एस्ट्रोनॉट्स की जान भी जा सकती थी ऐसे में कमांड मॉड्यूल के बड़े लिथियम हाइड्रोक्साइड के कनिस्ट करस को भी यूज में नहीं लिया जा सकता था क्योंकि उसकी शेप और डिजाइन लूनर मॉड्यूल के कनिस्ट से बिल्कुल अलग थी जिस वजह से उन्हें साथ में सीधे तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था ऐसे में मिशन कंट्रोल ने एस्ट्रोनॉट्स को गाइड करते हुए स्पेस फ्लाइट में मौजूद प्लास्टिक की थैलियां कुछ पाइप और टेप जैसी कई चीजों के अरेंजमेंट से इस प्रॉब्लम को सॉल्व करवाया जिससे लूनर मॉड्यूल में co2 की बढ़ती क्वांटिटी को कंट्रोल कर लिया गया ऐसी बहुत सी परेशानियों का सामना करते हुए 177th अप्रैल 1970 की सुबह को अपोलो 13 तेज रफ्तार से अर्थ के काफी करीब पहुंच जाता है अब एस्ट्रोनॉट्स को अर्थ के एटमॉस्फेयर में दाखिल होने से पहले दो बहुत जरूरी काम करने थे सबसे पहले उन्हें रीएंट्री के लिए स्पेस फ्लाइट को राइट एंगल पर सेट करना था क्योंकि अगर अर्थ के एटमॉस्फेयर में घुसने के दौरान स्पेस फ्लाइट का एंगल जरा सा भी गलत होता तो एस्ट्रोनॉट्स की जान खतरे में पड़ सकती थी लेकिन ऐसा करने का कोई भी सिस्टम लूनर मॉड्यूल में मौजूद नहीं था इसलिए सारा काम एस्ट्रोनॉट्स को कंट्रोल मिशन के इंस्ट्रक्शन पर मैनुअली करना पड़ा और राइट एंगल को फिक्स कर लिया गया अब अर्थ के एटमॉस्फियर में एंटर करने से पहले दूसरा काम यह था कि एस्ट्रोनॉट्स को लूनर मॉड्यूल से निकलकर वापस कमांड मॉड्यूल में जाना था क्योंकि केवल कमांड मॉड्यूल ही अर्थ के एटमॉस्फेयर में रीएंट्री के लिए बना था दरअसल अर्थ में रीएंट्री के दौरान एटमॉस्फेयर से तेज फ्रिक्शन होता है जिससे बहुत हीट पैदा होती है इस हीट से बचने के लिए कमांड मॉड्यूल की एक साइड पर हीट शील्ड लगी होती है जो एस्ट्रोनॉट्स को सुरक्षित रखती है इसलिए इस पूरे रीएंट्री के टास्क के लिए एस्ट्रोनॉट्स लूनर मॉड्यूल से निकलकर कमांड मॉड्यूल में पहुंच जाते हैं कमांड मॉड्यूल में कई दिन से सब कुछ बंद रहने की वजह से उसका टेंपरेचर फ्रीजिंग पॉइंट से भी नीचे आ गया होता है कमांड मॉड्यूल की वॉल्स सीलिंग फ्लोर वायर्स और पैनल समेत हर चीज पानी की बूंदों से ढकी हुई थी धरती पर मौजूद मिशन कंट्रोल को चिंता थी कि ऐसी सिचुएशन में कमांड मॉड्यूल दोबारा चालू हो भी पाएगा या नहीं लेकिन बहुत मशक्कत के बाद कमांड मॉड्यूल अपनी बची हुई पावर से दोबारा चालू हो जाता है जिसके बाद धरती अब केवल 4 घंटे की दूरी पर थी और इसी दौरान सर्विस मॉड्यूल को कमांड मॉड्यूल से अलग कर दिया जाता है इस समय एस्ट्रोनॉट्स ने दूर होते सर्विस मॉड्यूल की पिक्चर्स ली जिनमें उन्होंने देखा कि धमाके से सर्विस मॉड्यूल का पूरा एक पैनल उघड़ चुका था इसके न घंटे बाद अर्थ के एटमॉस्फेयर में घुसने से पहले कमांड मॉड्यूल से उस लूनर मॉड्यूल को भी अलग कर दिया गया जिसका इस्तेमाल अब तक एक लाइफ बोट की तरह किया गया था इसके बाद कमांड मॉड्यूल को अर्थ के एटमॉस्फेयर में रीएंट्री करनी थी और पैसिफिक ओशन में एक तय इलाके के अंदर गिरना था एस्ट्रोनॉट्स को पैसिफिक ओशन से निकालने के लिए यूएस नेवी के जहाज पहले से ही तैना किए हुए थे पूरी दुनिया की निगाहें टीवी पर जमी हुई थी यह हैरत की ही बात थी कि जिस अपोलो 13 के लॉन्च को सभी नजरअंदाज कर चुके थे उसी अपोलो 13 की वापसी को करीब 40 मिलियन लोग टीवी पर लाइव देख रहे थे हजारों किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से अपोलो 13 का कमांड मॉड्यूल अर्थ के एटमॉस्फेयर में दाखिल होता है इस रीएंट्री के दौरान एस्ट्रोनॉट्स का मिशन कंट्रोल से संपर्क टूट जाता है आमतौर पर यह कम्युनिकेशन ज्यादा से ज्यादा 3 मिनट के लिए ब्रेक होता है लेकिन 3 मिनट गुजर जा ने के बाद भी एस्ट्रोनॉट्स की तरफ से कोई जवाब नहीं आ पाता इसके बाद का हर गुजरता पल सभी को कई घंटों के बराबर महसूस होता है मिशन कंट्रोल को चिंता सता रही थी कि कहीं एक्सप्लोजन के दौरान कमांड मॉड्यूल की हीट शील्ड डैमेज ना हो गई हो क्योंकि अगर ऐसा होता तो रीएंट्री के दौरान पैदा होने वाली हीट से कमांड मॉड्यूल जलकर राख हो जाता जब तय वक्त से पूरा एक मिनट ज्यादा गुजर गया तो पूरी दुनिया की सांसें थम गई न्यूज़ मीडिया के कैमरा आसमान में ताक रहे थे एस्ट्रोनॉट्स की फैमिलीज उनकी सलामती की दुआएं कर रही थी सभी के दिलों की धड़कनें इस एक विचार से रुक गई थी कि कहीं अपोलो 13 के एस्ट्रोनॉट्स जान की बाजी हार ना गए हो लेकिन करोड़ों दुआए आसमान में पहुंची भी और उनका असर भी हुआ तय वक्त से करीब डेढ़ मिनट बाद मिशन कंट्रोल को एस्ट्रोनॉट्स का जवाब सुनाई देता है जिसमें उनकी सलामती की बात थी कुछ ही मिनट बाद टीवी की स्क्रीन पर पूरा मंजर दिखाई देने लगा हवा में पैराशूट उड़ते हुए दिखाई दिए जो कमांड मॉड्यूल को सेफली नीचे ला रहे थे इसके कुछ ही देर बाद कमांड मॉड्यूल पैसिफिक ओशन में जा गिरता है जिसके बाद यूएस नेवी द्वारा एस्ट्रोनॉट्स को वहां से रेस्क्यू किया गया इस तरह अपोलो 13 के लॉन्च के 6 दिन बाद 17 अप्रैल 1970 के दोपहर करीब 1 बजे तीनों एस्ट्रोनॉट्स वापस धरती पर सुरक्षित लौट आए लेकिन एस्ट्रोनॉट्स के सुरक्षित लौट आने से भी एक सवाल जिसे कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता था वो यह था कि आखिर ऑक्सीजन टैंक नंबर टू में ऐसा ब्लास्ट किस वजह से हुआ इसकी जांच पड़ताल के लिए नासा ने एक रिव्यू बोट को स्थापित किया जिनकी जांच में कई चीजें सामने आई दरअसल जो ऑक्सीजन टैंक ब्लास्ट हुआ था वो अपोलो 3 न से पहले अो 10 के लिए इस्तेमाल होने वाला था लेकिन उस समय मेंटेनेंस के लिए निकालते वक्त ये ऑक्सीजन टैंक 2 इंच की हाइट से गिर जाता है यह यूं तो बहुत मामूली सी ऊंचाई थी लेकिन एक्सपर्ट्स का मानना है कि इस दौरान ऑक्सीजन टैंक में अंदर कुछ डैमेज हुआ होगा जिसे टेस्टिंग के दौरान नोटिस नहीं किया जा सका इसके अलावा एक इंसीडेंट और सामने आता है जब अो 13 के लॉन्च से महज 3 हफ्ते पहले काउंटडाउन डेमोंस्ट्रेट टेस्ट हो रहा था जिसमें ऑक्सीजन टैंक्स को भरकर खाली किया जाता है इस दौरान जहां पहले नंबर का ऑक्सीजन टैंक तुरंत पूरा खाली हो जाता है तो वही दूसरे नंबर का ऑक्सीजन टैंक केवल 8 पर ही खाली हो सका इसलिए इसे खाली करने के लिए इंजीनियर्स ने उसके हीट्स को 65 वोल्ट की पावर पर कई घंटों तक चलाए रखा एक्सपर्ट्स द्वारा माना जाता है कि इस दौरान ऑक्सीजन टैंक के वो थर्मोस्टेट स्विच डैमेज हो गए थे जिन्हें केवल 28 वोल्ट की पावर के लिए डिजाइन किया गया था इन स्विचेबल के हाई टेंपरेचर को कंट्रोल नहीं किया जा सका और इस तेज तापमान में फैन के वायर्स पर लगी टेफलोन इंसुलेशन डैमेज हो गई जिसके बाद इस टैंक के फैन को बार-बार चलाने से धमाका हुआ इस भूल से नासा ने सीखा कि स्पेस बहुत भयानक जगह है जहां मिशन के बीच अगर कोई ऐसा फॉल्ट हो जाए तो किस तरह एस्ट्रोनॉट्स की जान पर बन सकती है अपोलो 13 मून पर लैंड नहीं कर सका लेकिन तीनों एस्ट्रोनॉट्स का ऐसा खतरनाक हादसे के बाद जिंदा लौटना अपने आप में एक बड़ी सफलता थी इसलिए इस मिशन के फेल होने के बावजूद इस अपोलो 13 को द सक्सेसफुल फेलियर का नाम दिया गया अपोलो 13 के बाद 21 में अपोलो 14 और अपोलो 15 को सफलता पूर्वक चांद पर पहुंचाया और उसके अगले साल 1972 में अपोलो 16 और अपोलो 17 भी सक्सेसफुल मून लैंडिंग मिशन रहते हैं अपोलो 13 के बाद के इन चारों मिशंस के दौरान चांद पर जो एक्सपेरिमेंट्स किए गए उनसे इंसान की साइंटिफिक अंडरस्टैंडिंग में काफी इजाफा हुआ सभी अपोलो मिशंस के दौरान एस्ट्रोनॉट्स चांद से करीब 382 केजी पत्थर धूल और अन्य सैंपल्स पृथ्वी पर लेकर आए जिन पर आज भी रिसर्च जारी है 35 सालों के के अंदर नासा नेने चांद पर छह सफल मून लैंडिंग्स करके 12 लोगों को चांद पर उतारा 1972 में अपोलो 17 नासा का आखिरी मून लैंडिंग मिशन बना इसके बाद अपोलो प्रोग्राम को बंद कर दिया गया इसके बंद होने के पीछे पब्लिक के इंटरेस्ट का कम होना अमेरिका का उस वक्त वियतनाम वॉर और सिविल राइट मूवमेंट जैसी सिचुएशंस में उलझना और लगातार नासा का बजट कम होना सबसे बड़े कारण थे 1972 के बाद 50 से भी ज्यादा साल गुजर गए लेकिन तब से आज तक कोई इंसान चांद पर नहीं जा सका जिसकी सबसे बड़ी वजह पैसा है स्पेस मिशंस में बेशुमार खर्चा होता है अगर [संगीत] खर्च कर दी गई थी यह खर्चा इतना ज्यादा है कि तब से कोई भी देश इतना खर्च करके इंसान को चांद पर भेजने की हिम्मत नहीं कर पाया इसके अलावा नासा के सिक्स सक्सेसफुल मून लैंडिंग मिशंस के तहत इंसानों द्वारा मून को काफी हद तक जाना जा चुका है और बाकी की रिसर्च और एक्सप्लोरेशंस के लिए खर्चा बचाते हुए एडवांस रोवर्स से काम लिया जाता रहा है जिसमें भारत का चंद्रयान 3 भी एक सक्सेसफुल मिशन रहा है वही नासा का फोकस अपोलो प्रोग्राम के बाद चांद से हटकर स्पेस शटल इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन और अदर प्ले प्लानेट एक्सप्लोरेशन में लग गया था जिसमें नासा ने सबसे ज्यादा फोकस मार्स के एक्सप्लोरेशन पर रखा क्योंकि यह हमारे सोलर सिस्टम का एक ऐसा प्लेनेट है जिस पर जीवन के होने की काफी पॉसिबिलिटी है यही वजह है कि साइंटिस्ट का ध्यान आज मून से ज्यादा मार्स पर है लेकिन ऐसा नहीं है कि अब कभी भी मून पर ह्यूमन लैंडिंग नहीं होगी क्योंकि नासा 2017 से चांद पर फिर से इंसानों को भेजने का मिशन प्लान कर रहा है जिसका नाम आर्टेमिस प्रोग्राम है इस प्रोग्राम के जरिए इंसान को और भी एडवांस टेक्नोलॉजी के साथ फिर से चांद पर भेजा जाएगा और इस बार मकसद केवल चांद पर एक्सप्लोर करने का नहीं बल्कि वहां परमानेंट बेस बनाने का है और इसी कड़ी में इस प्रोग्राम का लॉन्ग टर्म गोल मार्स पर इंसानों को सुरक्षित भेजने का भी है इसलिए पूरी उम्मीद लगाई जा सकती है कि इस दशक के खत्म होने से पहले इन

Share your thoughts